॥ दोहा ॥
विष्णु सुनिए विनी,सेवक की चिताले।
कीरत कुछ वर्णन करूँ,दीजै ज्ञान बताय॥
॥ चौपाई ॥
नमो विष्णु भगवान खरि.कष्ट नाशवन अखिल बिहारी॥
प्रबल जगत में शक्ति विवाह।त्रिभुवन फल रही उजियारी॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत। सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥
तन पर पीताम्बर अति सोहत।बैजन्ति मंगल मन मोहत॥
शंख चक्र कर गदा बिराजे।देखत दैत्य असुर दल भाजे॥
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे। काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥
संतभक्त दुष्ट सज्जन मनोरंजन।दनुज असुरन दल गंजन॥
सुख उपजाय अभिलाष सब भंजन। दोषदोषाय करत जन सज्जन॥
पाप कत भव सिन्धु उत्पातं।कष्ट नकर भक्त उबारण॥
करत अनेक रूप प्रभु धारण। केवल आप भक्ति के कारण॥
धरणि धेनु बनहि तुम्हीं पुकारा।तब तुम रूप राम की धारा॥
भार उत्पात असुर दल मारा।रावण आदिक को संहारा॥
आपने वाराह रूप बनाया।हिरण्यक्ष को मारा संगम॥
धर मत्स्य तन सिन्धु मा.चौदह रत्नन को निकलाया॥
अमिलख असुरन द्वन्द्व एलोकैट। रूप मोहनी आपको दिखाया गया है॥
देवन को अमृत पान रास।असुरन को छबि से बहलाया॥
कूर्म रूप धर सिंधु मंझया। मंदराचल गिरि तुरत् उठाया॥
शंकर का तुमको दर्शनया।भस्मासुर को रूप में दिखाया गया॥
वेदन को जब असुर डूबाया।कर प्रबंध उन्हें ढूंढवाया॥
मोहित ने खलहि नचाया।उसही कर से भस्माहार॥
असुर जलंधर अति बलदाई। शंकर से उन कीन्ह युद्ध॥
हार पार शिव सकल निर्मित।किन सती से छल खल जाई
सुमिरन कीन सागर शिवरानी।बतलाई सब विपत कहानी॥
तब तुम बने मुनिश्वर ज्ञानी। वृंदा की सब सुरति डूबनि॥
देखत तीन दनुज शैतानी।वृंदा आय नक्षत्र लपटानी॥
हो स्पर्श धर्म हानिकारक मानिहना असुर उर शिव शैतानी॥
होउ धुरु प्रह्लाद उबारे।हिरानाकुश आदिक खल मारे॥
गणिका और अजामिल तारे। बहुत भक्त भव सिन्धु उत्पन्ने॥
हरहु सकल संताप हमारे।कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥
देखहुँ मैं निज दरशफे।दीन बन्धु भक्तन हितकारे॥
चाहत आपका सेवक दर्शन।करहु दया अपन मधुसूदन॥
जानू नहीं योग्य जप पूजन। होय यज्ञ स्तुति मुरुय॥
शीलदया सन्तोष समाधान। विदित नहीं व्रतबोध विनाश॥
करहुँ तुम्हारा किस विधि पूजन।कुमति विलोक होत दुःख भीषण॥
करहुँ प्रणाम कौन विधि सुमिरन। कौन भाँति मैं करहुँ दान॥
सुर मुनि करत सदा सिवकै।हर्षित रहत परम गति पाई॥
दीन दुःखिन पर सदा सहाईं निज जन जन लेव अपनाई॥
पाप दोष संताप नशाओ॥भव बंधन से मुक्त कराओ॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ।निज चरणन का दास बनाओ॥
निगम सदा ये विनय सुनावै।पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै॥