॥ चौपाई ॥
प्रथमहिं गुरुको शीश नवाऊँ।हरिचरणों में ध्यान लगाऊँ॥
गीत सुनाऊं अद्भुत यार।धारण से हो बेड़ा पार॥
अर्जुन कहै सुनो भगवाना। अपने रूप बताओ नाना॥
उनका मैं कछु भेद न जाना।किरपा कर फिर कहो सुजाना॥
जो कोई तुमको नित ध्यानवे।भक्तिभाव से मन लगावे॥
रात दिन तुम्हारे गुण गावे।तुमसे दूजा मन नहीं भावे॥
तेरा नाम जपे दिन रात। और करे नहीं दूजी बात॥
दूजा निराकार को ध्यावे।अक्षर अलख अनादि बतावे॥
दोनों ध्यान स्थापित करने वाला।उनमें कौन उत्तम नन्दलाला॥
अर्जुन से बोले भगवान।सुन प्यारे कछु देखके ध्यान॥
मेरा नाम जपै जपवे।नेत्रों में प्रेमाश्रु छावे॥
मुज बिनु और कछु नहीं चावे।रात्रि दिवस मेरा गुण गावे॥
सुनो मेरा नमोच्चार।उथै रोम तन बारम्बार॥
अन्य क्षण टूटे नहीं तार।उनकी श्रद्धा अटल अपार॥
मुझमें जुड़कर ध्यान लगायावे।ध्यान समय विह्वल हो जावे॥
कंठ रथ बोला नहिं जावे। मन बुधि मेरे मांहि समावे॥
लज्जा भय रु बिसारे मन अपना रहे ना तन का ज्ञान॥
ऐसे जो मन ध्यान लगायावे।सो योगिन में श्रेष्ठ कहावे॥
जो कोई ध्यावे निर्गुण रूप।पूर्ण ब्रह्म अरु अचल दर्शन॥
निराकार सब वेद बतावे।मन बुद्धि जहँ थाह न पावे॥
जिसका कहुँ न होवे नाश।ब्यापक सबमें ज्यों आकाश॥
अटल अनादि आनंदघन।जाने बिरला जोगीजन॥
ऐसा करे सारगर्भित ध्यान।सबको समझे एक॥
मन इंद्रिय अपने वश राखे।विषयण के सुख कहुँ न चाखे॥
सब खिलौने के हित में रत। ऐसी उनकी सच्ची मत॥
वह भी मेरे ही को ही।निश्चय परमा गति को जाता है॥
फल दोनों का एक समान।किन्तु कठिन है निर्गुण ध्यान॥
जबतक है मन में अभिमान।तबतक होना कठिन ज्ञान॥
निर्गुण है प्रेम में।उनका दुर्घट साधन नेम॥
मन टिकने को नहीं आधार।इससे साधन कठिन अपार॥
सगुण ब्रह्म का सहज उपाय।सो मैं तुझे बताता हूँ॥
यज्ञदानादि कर्म अपारा।मेरे अर्पण कर कर सारा॥
अटल लगावे मेरा ध्यान। समझे मुझको प्राण समान॥
सारी दुनिया से तोड़े प्रीत।मुझको समझे अपना मायत॥
प्रेम मगन हो अति अपार। समझे यह संसार असार॥
जिसका मन नित मुझमें यार।उससे मैं अति प्यार करता हूँ॥
केवट नाव चली ऊँ। भाव सागर के पार लाऊँ॥
यह सबसे उत्तम ज्ञान है।इससे तु कर मेरा ध्यान॥
फिर होवेगा मोहिं सामान।यह कहो मम सत्य जान॥
जो चले इसके अनुसार।वह भी हो भवसागर पार॥